भारत की भक्ति परंपरा में संत मुक्ताबाई का स्थान अत्यंत पवित्र और प्रेरणादायी है। वे 13वीं शताब्दी के महान संत संत ज्ञानेश्वर की छोटी बहन थीं, और स्वयं भी एक सिद्ध योगिनी, संतकवि, और अत्यंत बुद्धिमान आत्मा थीं। मुक्ताबाई की पुण्यतिथि उनके जीवन, काव्य और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को स्मरण करने का एक अवसर है, जो आज भी अनगिनत भक्तों को प्रेरणा देता है।
संत मुक्ताबाई का जीवन परिचय
मुक्ताबाई का जन्म महाराष्ट्र के आपेगांव (या आलंदी के पास) में हुआ था। वे संत ज्ञानेश्वर, निवृत्तिनाथ, और सोपानदेव की छोटी बहन थीं। उनके माता-पिता विट्ठलपंत और रुक्मिणी थे, जिन्होंने संन्यास लेने के बाद गृहस्थ जीवन में वापसी की, जिससे उन्हें समाज के विरोध का सामना करना पड़ा। इस सामाजिक बहिष्कार के कारण, मुक्ताबाई और उनके भाई-बहनों को काफी संघर्षों से गुजरना पड़ा।
मुक्ताबाई बचपन से ही प्रखर बुद्धि और आध्यात्मिक प्रतिभा की धनी थीं। उन्होंने छोटी उम्र में ही जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझ लिया था और संत निवृत्तिनाथ से आध्यात्मिक दीक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने संत नामदेव, संत चोखामेला, और अन्य संतों के साथ संवाद कर भक्ति मार्ग को अपनाया और प्रचारित किया।
मुक्ताबाई की शिक्षाएं
मुक्ताबाई का संदेश स्पष्ट, कोमल और गहरा था। उन्होंने भक्ति, आत्मज्ञान, और सहानुभूति का मार्ग दिखाया। उनके अभंगों (मराठी भक्ति गीतों) में गहरी आध्यात्मिक अनुभूति है, जिनमें जीवन की कठिनाइयों को सहर्ष स्वीकार करने और ईश्वर की शरण में रहने की प्रेरणा मिलती है।
उनका सबसे प्रसिद्ध कथन है:
“काय करू या विश्वाचे?”
(मैं इस संसार के छल और दुख का क्या करूं?)
इसमें उन्होंने संसार की नश्वरता और भटकाव को समझते हुए ईश्वर की ओर रुख करने की बात कही।
मुक्ताबाई की पुण्यतिथि का महत्व
हर वर्ष मुक्ताबाई की पुण्यतिथि को महाराष्ट्र सहित भारत के कई हिस्सों में भक्ति और श्रद्धा से मनाया जाता है। इस दिन संतों की परंपरा, उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग, और उनके जीवन से जुड़ी शिक्षाओं को श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।
संतों की पुण्यतिथि मात्र मृत्यु का दिन नहीं होती, बल्कि वह दिन होता है जब वे ‘सगुण’ रूप से ‘निर्गुण’ में विलीन हो जाते हैं। मुक्ताबाई की पुण्यतिथि भी हमें यही सिखाती है — कि जीवन की पीड़ा, सामाजिक अन्याय, और संसारिक मोह से ऊपर उठकर आत्मा की मुक्ति की ओर बढ़ना ही सच्चा अध्यात्म है।
“मुंगी उडाली आकाशी” – एक गूढ़ प्रतीक
मुक्ताबाई के एक प्रसिद्ध अभंग में पंक्ति आती है:
“मुंगी उडाली आकाशी”
(चींटी उड़ गई आकाश में)
यह प्रतीक अत्यंत गूढ़ और आध्यात्मिक है। सामान्यतः, मुंगी (चींटी) उड़ नहीं सकती। वह धरती से जुड़ी रहती है, सीमित, छोटा और संघर्षपूर्ण जीवन जीती है। लेकिन जब कहा जाता है कि “मुंगी उडाली आकाशी”, तो यह किसी असंभव या चमत्कारी घटना का प्रतीक बन जाता है।
इस प्रतीक का अर्थ कई स्तरों पर लिया जा सकता है:
आज के युग में मुक्ताबाई की प्रासंगिकता
आज जब दुनिया भौतिकता, तनाव और सामाजिक विषमता की ओर बढ़ रही है, तब मुक्ताबाई की शिक्षाएं हमें भीतर की ओर देखने, आत्मा की शुद्धि करने और प्रेम व करुणा का मार्ग अपनाने का संदेश देती हैं। उनकी कविता में समावेश, समानता, और साहस की प्रेरणा मिलती है।
उनका जीवन यह सिखाता है कि:
मुक्ताबाई के प्रसिद्ध अभंग
मुक्ताबाई ने बहुत कम उम्र में भक्ति साहित्य में अमूल्य योगदान दिया। उनके कुछ प्रसिद्ध अभंग हैं:
इन रचनाओं में उनकी करुणा, ज्ञान, और अद्वितीय भक्ति झलकती है।
निष्कर्ष: मुक्ताबाई — प्रेम, त्याग और मुक्ति की मूर्ति
संत मुक्ताबाई की पुण्यतिथि केवल उनकी मृत्यु की स्मृति नहीं है, बल्कि उनके जीवन के संदेश को अपने भीतर उतारने का अवसर है। “मुंगी उडाली आकाशी” जैसी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हमें यह समझाती है कि सच्चा भक्त, चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ हों, अपने विश्वास, भक्ति और साधना से उड़ान भर सकता है।
मुक्ताबाई आज भी जीवंत हैं — उनके शब्दों में, उनकी करुणा में, और उनके द्वारा जगाई गई भक्ति की लौ में।
ॐ मुक्ताबाई नमः।
“ मुंगी उडाली आकाशीं ।
तिणें गिळीलें सूर्याशीं ॥१॥
थोर नवलाव जांला ।
वांझे पुत्र प्रसवला ॥२॥
विंचु पाताळाशी जाय ।
शेष माथां वंदी पाय ॥३॥
माशी व्याली घार झाली ।
देखोनी मुक्ताई हांसली ॥४॥ “