(व्याधितरूपीय – जू एवं कृमि)
अथास्मै प्रोवाच भगवानात्रेयः – इह खल्वग्निवेश ! विंशतिविधाः कृमयः पूर्वमुद्दिष्टा नानाविधेन प्रविभागेनान्यत्र सहजेभ्यः, ते पुनः प्रकृतिभिभिद्यमानाश्चतुविधा भवन्ति । तद्यथा- पुरीषजाः श्लेष्मजाः शोणितजा मळजाचेति ॥९॥
अग्निवेश को भगवान् आत्रेय ने कहा, – हे अग्निवेश !
पीछे अष्टोदरीय अध्याय में सहज (सहजन्य) कृमियों (कीड़ा) को छोड़ कर नाना प्रकार के विभाग से बीस (२०) प्रकार के (मलजन्य दो प्रकार के, रक्तजन्य छः (६) प्रकार के, कफजन्य सात (७) प्रकार के और पुरीषजन्य पांच (५) प्रकार के) कृमि (कीड़ा) कहे हैं।
ये बीस (२०) प्रकार के कृमि प्रकृति की भिन्नता के कारण चार (४) प्रकार के हैं।
यथा – (१) पुरीषजन्य, (२) श्र्लेष्मजन्य, (३) रक्तजन्य और, (४) मलजन्य ॥९॥
तत्र मो बाह्यचाभ्यन्तरच । तत्र बाह्ये मले जावान्मलजान्सं- चक्ष्महे । तेषां समुत्थानं मृजावर्जनम् । स्थान- केश श्मश्रु-लोम- पक्ष्म वासांसि | संस्थानं-अणवस्तिलाकृतयो बहुपादाः । वर्णः कृष्णः शुक्लच । नामानि-यूकाः पिपीलिकाच । प्रभावः कण्डूजननं कोठपिड – काभिनिर्वर्तनं च । चिकित्सितं त्वेषामपकर्षणं मलोपघातो मलकराण च भावानामनुपसेवनमिति ॥१०॥
इनमें मल दो (२) प्रकार का है – (१) बाह्य और, (२) आभ्यन्तर।
इनमें शरीर के बाह्यमल (पसीना आदि से) उत्पन्न होने वाले कुमियों को – मलजन्य कृमि कहते हैं ।
इनकी उत्पत्ति का कारण :– शरीर शुद्धि का न करना है ।
इनका स्थान :– केश (शिर के बाल), दाढ़ी, मूंछ, शरीर के लोभ, आंखों की पलकों के बाल और वस्त्र हैं ।
इनका संस्थान अर्थात् (रूप या आकृति) :– ये अणु (सूक्ष्म), तिल के समान आकृति और बहुत पांव वाले होते हैं।
इनका वर्ण (रंग) :– काला और श्वेत है।
इनके नाम :– यूक (जू) और पिपीलिका (लिक्षा), लीख है।
इनका प्रभाव :– खाज उत्पन्न करना और कोठ, पिडका आदि फुन्सियों को शरीर पर उत्पन्न करना है ।
इनकी चिकित्सा :– इनको चिमटी से पकड़ कर खींचना, मल का नाश करना, और मलोत्पादक वस्तुओं का परित्याग करना है ॥१०॥
शोणितज्ञानां तु खलु कुष्ठेः समानं समुत्थानम्, स्थानं रक्तवाहिन्यो धमन्यः । संस्थानं अणवो वृत्ताश्वापादाश्च सूक्ष्मत्वाचैके भवन्त्यहश्याः । वर्णस्वाम्रः । नामानि केशादा लोमादा लामद्वीपाः सोरसा औदुम्बरा जन्तुमातरश्चेति । प्रभावः केश श्मश्रु-नख-लोम-पक्ष्मापध्वंसो व्रणगतान हर्ष कण्डू- तोद-संसर्पणान्यतिवृद्धानां च त्वक-शिरा स्नायु-मांस-तस्- णास्थि भक्षणमिति, चिकित्सितमध्येषां कुष्ठैः समानं तदुत्तरकालमुपदे- क्ष्यामः ॥११॥
रक्तजन्य कृमियों का निदान कुछ रोग के निदान के समान ही है।
कृमियों का स्थान :– रक्तवाहिनी धमनियां (सिरायें भी) हैं । इनका रूप सूक्ष्म होने से कुछ कृमि अदृश्य होते हैं ।
वे आंख से नहीं देखे जाते, इनका रंग ताम्र वर्ण है; इनके नाम केशाद (केशों को खाने वाला), लोमाद, लोमद्वीप, सौरस, औदुम्बर और जन्तुमाता हैं ।
इनका प्रभाव – केश श्मश्रु, लोम, और पलक के बालों को नाश करना है, व्रण में प्रवेश करके ये हर्ष [१], खाज, तोद (चुनचुना) और संसर्पण की सी प्रतीति कराते हैं।
[१] हर्ष – जिस प्रकार दाद में खुजाने से आनन्द, हर्ष वा रोमाञ्च होता है। इस को भी कृमि उत्पन्न करते हैं ।
बहुत बढ़के ये त्वचा सिरा, स्नायु, मांस, और तरुण अस्थि को भी खाने लगते हैं ।
इनकी चिकित्सा भी कुष्ठ रोग के समान है, इसका वर्णन आगे कुष्ठ- चिकित्सा में करेंगे ॥११॥
जय श्री कृष्णा