एक बार ट्रेन से प्रयाग से वापस लौट रहे थे। संयोग से उस समय कुंभ चल रहा था। दो सिपाही सामने की सीट पर बैठे थे। जाहिर बात है कि लाखों लोगों की भीड़ को संभालने का दायित्व पुलिस पर ही रहता है। उसमें से एक सिपाही ने लगभग झल्लाते हुए अपने सहयोगी सिपाही से पूछा, ‘‘गुरु, एक बात समझ नहीं आयी कि कुंभ में अमृत की तो एक बूंद छलकती है और उसका पान करने के लिए लाखों लोग आ जाते हैं। पता नहीं हर श्रद्धालु के हिस्से में कितना अमृत आता होगा?’’
बात मजाक की है। किंतु भारतीय समाज में कुंभ का इतना महत्व है कि भगवान के अनेक नामों में एक नाम कुंभ भी है। विष्णु सहस्रनाम में आता है :-
अर्चिष्मानर्चितः कुंभो विशुद्धात्मा विशोधनः।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः।।
कुंभ शब्द पर भारत के ऋषियों और मनीषियों ने इतना अधिक चिंतन किया है कि इस पर जितना भी कहा जाए, वह अपूर्ण ही रहेगा। सबसे पहले तो काल के परिप्रेक्ष्य में बात को समझने का प्रयास करते हैं। भारतीय मनीषा ने काल की गति को चक्राकार न मानकर कुंभाकार माना है। अब प्रश्न उठता है कि इससे क्या अंतर पड़ेगा। कुंभाकार गति में न तो अंत है और न ही प्रारंभ। इसमें गति तीव्र भी हो सकती है और मंद भी।
मथुरा का शासक कंस जब अपनी बहन और बहनोई को लेकर रथ पर जा रहा था तो आकाशवाणी हुई इसी देवकी के गर्भ से पैदा होने वाली आठवीं संतान तेरा काल बनेगी। अब कंस ने जब देवकी और वसुदेव को कारागार में डाल दिया। आकाशवाणी तो आठवीं संतान के लिए हुई थी किंतु कंस ने देवकी लगातार आठों संतान को मारने का भीषण कर्म इसलिए किया क्योंकि उसे यह समझाया गया था कि काल की गति कुंभाकार है और इसमें यह समझना कठिन है कि कौन सी संतान प्रथम है और कौन सी आठवीं?
कंस की बुद्धि ऐसी फिरी कि उसने देवकी की आठों संतानों को जन्म लेते ही मार देने का आदेश दिया क्योंकि वह यह रिस्क नहीं ले सकता था कि पता नहीं कौन सी संतान आठवीं हो।
काल की इस गति विशेषकर किसी कालखंड विशेश के स्टार्टिंग प्वाइंट और लास्ट प्वाइंट की गणना को लेकर गफलत के ऐसे बहुत से प्रसंग आपको महाभारत और पौराणिक कथा में प्राप्त हो जाएंगे.
भगवान श्रीहरि कुंभ हैं क्योंकि परम वैष्णव पाराशर भट्टार के अनुसार वह इस जगत (कुम) में चमकते या भासित (भा) होते हैं। कुंभ का एक अर्थ ऐसी वस्तु भी होता है जिसकी सभी आकांक्षा करते हैं। इस दृष्टि भगवान ही सभी की आकांक्षा का केंद्र हैं।
कुंभ शब्द भारतीय समाज ने इतने तरह से बरता है कि उसकी कोई एक सर्वजनीन व्याख्या नहीं हो सकती।
ज्योतिष में कुंभ बहुत ज्ञानवान राशि मानी जाती है। इसे वायु तत्व वाली राशि कहा जाता है। यह कर्मकारक ग्रह की मूल त्रिकोण राशि है। मूल त्रिकोण में माने शनि अपने मूल स्वरूप का फल इसी राशि में देता है। तुला तो उसकी उच्च राशि है। यहां कर्मकारक शनि ज्ञान प्रधान राशि में आकर अपने मूल स्वरूप में बिराज रहे होते हैं।
अब योग को ही ले लीजिए। प्राणायाम का सबसे महत्वपूर्ण अंग कुम्भक ही है। कुम्भक में सांस को रोकने से माना जाता है कि आप अपनी आयु को बढ़ने से रोक देते हैं। यानी आप अमृत्व की ओर बढ़ने लगते हैं।
बहरहाल, कुंभ एक यात्रा का प्रतीक है। इसमें न कोई प्रारंभ है और न ही अंत। कोई सिद्ध नहीं है। कोई नौसिखिया नहीं। बस सब घूम रहे हैं। कुंभ के बाहर। कुंभ के भीतर। योनि प्रति योनि।
कुम्भ को लेकर श्री अन्तर्वेदी विक्रमार्क अत्रि ने एक बार लिखा है : कुम्भ अर्थात् जिसमें जल भरा हो, जलपूरित घट की कुम्भ सञ्ज्ञा होती है।
सातवें मण्डल के तेतीसवे सूक्त की दो ऋचायें द्रष्टव्य हैं-
१. विद्युतो ज्योतिः परि संजिहानं मित्रावरुणा यदपश्यतां त्वा । तत्ते जन्मोतैकं वसिष्ठागस्त्यो यत्त्वा विश आजभार ॥
२. सत्रे ह जाताविषिता नमोभिः कुम्भे रेतः सिषिचतुः समानम् । ततो ह मान उदियाय मध्यात्ततो जातमृषिमाहुर्वसिष्ठम् ॥
इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है-
‘ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥’
इस प्रकार कुंभ से अगस्त्य तथा महर्षि वसिष्ठ का प्रादुर्भाव हुआ। मित्र तथा वरुण नामक देवताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुञ्जीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव हुआ।
इस वैदिक आख्यान की व्याख्या इतिहास- पुराणों में अनेकत्र प्राप्त होती है। पुराणों की कथाओं में समयानुसार अन्य तथ्यों का समावेश हुआ, इस प्रकार मित्रावरुण जिन्हें वेदमन्त्रों में वृष्टि का अधिपति कहा गया वे अगस्त्य वर्षा के अन्त के सूचक मान लिये गये।
अरब देशों में अगस्त्योदय को ग्रीष्म ऋतु के अन्त से जोड़कर देखा जाता है। मित्र और वरुण जिनका पृथक् पृथक् तथा समवेत उल्लेख प्राप्त होता है, इसमें मित्र शुक्ल/उत्तर के तथा वरुण कृष्ण/दक्षिण से सम्बद्ध हैं।
‘मित्रावरुण’ का उल्लेख यह प्रदर्शित करता है कि आकाश में #कुम्भ_राशि में ही उत्तरायण/दक्षिणायन विभाग था तथा इससे सटी हुई #मीन_राशि
का भी सम्बन्ध वर्षा-ऋतु (दो मास) से था।
#उर्वशी “उरु वशे यस्याः” अर्थात् जिसके वश में उरु/उडु हैं वह उर्वशी ।
उर्वशी अप्सरा है… आप् अर्थात् जल के आश्रय से जिसका सरण अर्थात् संचार होता है वह अप् सरः है (अप्सु सरति)।
द्वितीय मन्त्र में आया हुआ रेतः का अर्थ उदक या जल ही है।
अर्थात् मित्रावरुण द्वारा उर्वशी (उडु-नक्षत्र को बाँधने वाला क्रान्तिवृत्त का वह बिन्दु) को देखे जाने पर कुम्भ तथा मीनराशिगत सूर्य के होने पर जल वर्षण होता था।
कुम्भ राशि में दक्षिणायनारम्भ की स्थिति का प्रकटन उपर्युक्त ऋचा में है, इसी समय दक्षिणी आकाश में ‘अगस्त्योदय’ हुआ करता था ।
खगोलीय गणित से यह स्थिति आज से प्रायः १७००० वर्ष पूर्व की निश्चित होती है।
इसे आप इस प्रकार भी कह सकते हैं कि सत्रह हजार वर्ष पूर्व उक्त सूक्त/ऋचाओं का दर्शन ऋषियों ने किया था।
कुम्भ से अगस्त्य, स्थल में वसिष्ठ तथा जल में मत्स्य का जन्म हुआ। उर्वशी इन तीनों की मानस जननी मानी गयी।
यह वह काल था जब उत्तर में अभिजित्(Vega) ध्रुव पद को सुशोभित कर रहे थे, इस स्थिति को Sky map में लागू कर सप्तर्षि मण्डल के वसिष्ठ तारे की स्थिति को भी समझ लेंगे कि वे कहाँ पर दृश्यगत होते थे।
तथ्यों के प्रकटन हेतु अवयवों का मानवीकरण कर उन्हें कथासूत्र में पिरोकर प्रस्तुत करना एक रोचक शैली है तथा कठिन विषय भी इस विधि से आसानी से स्मरण बने रहते हैं तथा उसका लोकप्रवाह बना रहता है।
एक आख्यान है कि
अगस्त्य ने विन्ध्य पर्वत को स्थिर कर दिया और कहा- “जब तक मैं दक्षिण देश से न लौटूँ, तब तक तुम ऐसे ही निम्न बनकर रुके रहो।”
इसका सम्बन्ध पृथ्वी की अक्षनति से है, जिसके कारण ही सूर्य की उत्तरायण दक्षिणायन प्रवृत्ति हुआ करती है। यदि हमारी पृथ्वी अपने अक्ष पर झुकी हुई न होती तो निश्चित रूप से ऐसी कथा भी न होती।
विन्ध्य की मर्यादा का स्थान उज्जयिनी/अवन्ती को माना गया है और इसका अक्षांश हमारी पृथ्वी के अक्षीय झुकाव के बराबर ही है।
जब यह कथा लिखी गई थी उस काल तक उज्जयिनी से दक्षिणी भूभागों में ही अगस्त्य (Canopus) की दृश्यता थी , उत्तर में नहीं |
गत पाँच हजार वर्षों में पृथ्वी की स्थिति के परिवर्तनस्वरूप अब भारत के उत्तरी स्थानों में भी सितम्बर से मई माह के मध्य अगस्त्य दर्शन होते हैं।
वर्षाकाल बीत जाने पर ही अगस्त्योदय होने से बाबा तुलसीदास ने लिखा “उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥”
अगस्त्य ने उदित होकर मार्ग के जल को सोख लिया जिस प्रकार लोभ सन्तोष को सोखकर नष्ट कर देता है।
( सादर उद्धृत )
कलश वर्धापन : दूल्हा भांजा ससुराल के द्वार पर कलश भरता हुआ। कलश कहां नहीं? ब्याह में तो कलश ही कलश। कोहबर की माया से लेकर बधाइयों तक कलश ही कलश। हर संस्कार में कलश! मानव का सबसे बड़ा निर्माण ही कलश है।
१२ (excl कुम्भ-पण्डित मदन मोहन पाठक, विभागाध्यक्ष, ज्योतिष, राष्ट्रीयसंस्कृत संस्थान, लखनऊ परिसर कृत )
जगन्नाथ पञ्चाङ्ग २०७४ विक्रमाब्द के अन्तिम पृष्ठ पर १२ कुम्भ के समय और स्थान का वर्णन है। सूर्य-चन्द्र-गुरु जब एक राशि में आते हैं तो महा-कुम्भ योग होता है। स्वामी करपात्री जी द्वारा कुम्भपर्व निर्णय ग्रन्थ के पृष्ठ-२२ पर देवों के १२ दिनों अर्थात् मनुष्य के १२ वर्षों में १२ कुम्भ पर्व भारत के १२ स्थानों में होते हैं-
देवश्चागत्य मज्जन्ति तत्र मासं वसन्ति च। तस्मिन् स्नानेन दानेन पुण्यमक्षय्यमाप्नुयात्॥
सिंहे युतौ च रेवायां मिथुने पुरुषोत्तमे। मीनभे ब्रह्मपुत्रे च तव क्षेत्रे वरानने॥
धनुराशिस्थिते भानौ गङ्गासागरसङ्गमे। कुम्भराशौ तु कावेर्य्यां तुलार्के शाल्मलीवने॥
वृश्चिके ब्रह्मसरसि कर्कटे कृष्णशासने। कन्यायां दक्षिणे सिन्धौ यत्राहं रामपूजितः॥
अथाप्यन्योऽपि योगोऽस्ति यत्र स्नानं सुधोपमम्। मेषे गुरौ तथा देवि मकरस्थे दिवाकरे॥
त्रिवेण्यां जायते योगः सद्योऽमृतफलं लभेत्। क्षिप्रायां मेषगे सूर्ये सिंहस्थे च बृहस्पतौ॥
मासं यावन्नरः स्थित्वाऽमृतत्वं यान्ति दुर्लभम्। (रुद्रयामल, तृतीय करण प्रयोग, १२२-१२८)
अर्थात्-१. सूर्य-चन्द्र-गुरु सिंह राशि में युत होने से नासिक (महाराष्ट्र) में,
२. मिथुन राशि में जगन्नाथपुरी (ओड़िशा) में,
३. मीन राशि में कामाख्या (असम) में,
४. धनु राशि में गङासागर (बंगाल) में,
५. कुम्भराशि में कुम्भकोणम् (तमिलनाडु) में,
६. तुला राशि में शाल्मली वन अर्थात् सिमरिया धाम (बिहार) में,
७. वृश्चिक राशि में कुरुक्षेत्र (हरियाणा) में,
८. कर्क राशि में द्वारका (गुजरात) में,
९. कन्या राशि में रामेश्वरम् (तमिलनाडु) में,
१०. मेषाऽर्क-कुम्भ राशि गत गुरु में हरिद्वार (उत्तराखण्ड) में,
११. मकराऽर्क मेषराशिगत गुरु में प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में,
१२. मेषाऽर्क सिंहस्थ गुरु में उज्जैन (मध्य प्रदेश) में
महाकुम्भ होता है।
टिप्पणी-१. कुरुक्षेत्र में महाभारत कार्तिक अमावास्या (अमान्त मास, उसके बाद मार्गशीर्ष का आरम्भ) को आरम्भ हुआ जिस समय सूर्य वृश्चिक राशि में थे। चन्द्र का प्रायः उसी समय वृश्चिक राशि में प्रवेश होता है। दक्षिणी गणना से शुभकृत सम्वत्सर था। इसमें गुरु वृश्चिक राशि में नहीं था।
२. रामेश्वरम् में भगवान् राम ने फाल्गुन मास में शिव की पूजा की थी। उस समय गुरु कन्या राशि में थे। राम जन्म के समय गुरु कर्क राशि में थे। ३६ वर्ष बाद पुनः कर्क राशि में; ३९ वर्ष बाद राज्याभिषेक (२५ वर्ष में वनवास, १४ वर्ष तक) के समय तुला में प्रवेश किये। उससे पूर्व कन्या राशि में थे।
३. कुम्भ का सामान्य अर्थ जल का पात्र है। कुम्भ जैसा प्रयोग होने वाला कुम्भड़ा है (कूष्माण्ड का अपभ्रंश)। जल के क्षेत्र भी कुम्भ स्थान हैं। कावेरी नदी का डेल्टा भी कुम्भ है। उसका कोण कुम्भकोणम् है। यह अगस्त्य का जन्म स्थान था। इसी कुम्भ से उनका जन्म हुआ, मिट्टी के बर्तन से नहीं। आकाश में क्षितिज के ऊपर का दृश्य भाग कुम्भ है (वेद में चमस भी कहा है)। उत्तर से दक्षिण की रेखा उसे २ भाग में विभाजित करती है। उत्तरी विन्दु वसिष्ठ तथा दक्षिणी विन्दु अगस्त्य है। एक अगस्त्य तारा भी है जिसके दक्षिणी अक्षांश पर अगस्त्य द्वीप था। यह करगुइली द्वीप कहलाता है जो अभी फ्रांस के अधिकार में है। आकाश के कुम्भ का पूर्व भाग या पूर्व कपाल मित्र तथा पश्चिम कपाल वरुण है।
४. पुरी में जब भी रथ यात्रा होती है, सूर्य और चन्द्र मिथुन राशि में ही होते हैं (आषाढ़ शुक्ल द्वितीया)। रथयात्रा या दशमी को विपरीत रथ यात्रा, इन दोनों में कम से कम एक के समय सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र में होता है। अदिति के समय इसी नक्षत्र में पुराना वर्ष समाप्त होकर नया वर्ष शुरु होता था। अतः शान्ति पाठ में कहते हैं-अदितिर्जातं अदितिर्जनित्वम्। १७,५०० ई.पू. में पुनर्वसु में विषुव संक्रान्ति होती थी। अतः अदिति को पुनर्वसु का देवता कहा गया है। गुरु मिथुन राशि में १२ वर्ष के बाद ही आ सकता है। पर उसके अनुसार नव-कलेवर नहीं होता। यह प्रायः १९ वर्ष बाद होता है जब अधिक आषाढ़ मास हो।
५. शाल्मली वन सिमरिया घाट के अतिरिक्त अन्य भी हो सकते हैं। यह गङ्गा और कोशी के संगम पर था। प्राचीन काशी राज्य में भी गङ्गा-शोण सङ्गम के पास सेमरा गांव है। यह काशी क्षेत्र का कुम्भ क्षेत्र हो सकता है।
‘महाकुंभ की
सबसे तार्किक व्याख्या
‘
किसी ने कहा कि ईसाइयों में कन्फेशन बाॅक्स होता है। जिसमें पादरी के समक्ष खड़े होकर आप अपने अपराध और पाप को बता सकते हैं। इससे आप अपने पाप को ग्रंथि बनने से रोक सकते हैं और आगे का जीवन निर्मल तरीके से जी सकते हैं।
कहते हैं कि हिन्दुओं
में तो कोई कन्फेशन बाक्स होता नहीं, जबकि हम अपने जीवन में जाने अनजाने अनेक अपराध करते हैं, पाप करते हैं। कोई समाज या अदालत हमें सजा नहीं देता लेकिन हमें तो पता होता है कि हमने पाप किया है। आखिर इस पाप ग्रंथि से हिन्दू कैसे मुक्त हो?
इसलिए हमारे ॠषि मुनियों ने इसे जल के प्रवाह यानी नदियों से जोड़ दिया। नदी में डुबकी लगाइए और पाप मुक्त हो जाइए। उसका विधान इस प्रकार किया कि हर चार साल में गंगा नदी ( हरिद्वार ), गंगा-यमुना के संगम ( प्रयागराज ), क्षिप्रा नदी ( उज्जैन ), गोदावरी नदी ( नासिक ) के तट पर महाकुंभ भरता है, उसमें स्नान कीजिए और अपने पापों को बहा दीजिए।
यह विधान इतना तगड़ा है कि आपने हजार गऊओं के वध का पाप भी किया है तो वह भी महाकुंभ में स्नान करने से धुल जाएगा।
जीवन तो जीना पड़ता है
फिर वह पाप की ग्रंथि लेकर जियो या निर्मल मन लेकर। इसलिए महाकुंभ को ॠषियों ने हमारे जीवन से जोड़ दिया।
आगे विचार मेरे अपने है-
हमारे ॠषि मुनियों ने जब यह अवधारणा रखी थी, तब भारत भूमि पर अत्यंत विरल आबादी थी। वन आधारित ग्राम व्यवस्था थी। नदियों के किनारे नगर व्यवस्था आकार ले रही थी लेकिन फिर भी नदियां एकदम साफ थी। किनारे रहने वाले उन्हीं का साफ जल पीते थे। इस साफ स्वच्छ जल को ही पवित्र और पावन माना जाता था लेकिन पिछले 100 सालों में सुरसा की तरह हमारी आबादी बढ़ती गई। आज हम 145 करोड़ लोगों का दुनिया का नंबर वन भीड़भरा देश बन गए हैं। रही सही कसर हमारी इंजीनियरों ने पूरी कर दीं। उन्होंने नगरों और महानगरों की गटरों के सारे मौखें नदियों में खोल दिए। जिन नदियों को हमने सबसे साफ सुथरा रखना चाहिए था, उन्हें हमने महागटर में बदल दिया।
नई दिल्ली की सारी गटर का पानी यमुना में बहा दिया। कहते हैं कि बहता पानी अपने आप स्वच्छ भी होता जाता है लेकिन यमुनाजी बहते बहते मथुरा जी तक आई तो मथुरा के सारे नाले फिर नदी में छोड़ दिए। फिर भी हमें जक नहीं पड़ा तो आगरा के सारे नाले यमुना जी में छोड़ दिए। यही यमुनाजी प्रयागराज में आकर गंगाजी में मिल गई।
क्या आप अब भी कहेंगे कि प्रयागराज में संगम के तट पर दोनों नदियों का जल स्वच्छ और पवित्र रह गया है?
उसी में हम डुबकी लगा रहे हैं, आचमन कर रहें हैं, पवित्र मंत्रों का उच्चारण कर रहे हैं? यह कैसा स्नान है?
ऐसा नहीं है कि हम नदियों को साफ नहीं रख सकते हैं? अगर लंदनवासी टैम्स को साफ रख सकते हैं तो हम गंगा- यमुना, क्षिप्रा, गोदावरी, चम्बल और मेरे गांव भानपुरा की रेवा नदी को क्यों साफ नहीं रख सकते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार महाकुंभ भरवाने पर दस हजार करोड़ खर्च कर सकती है तो गंगा यमुना की सफाई पर इतना ही पैसा क्यों नहीं खर्च कर सकती? तकनीक आपके पास नहीं है तो लंदन से खरीदिए/ मंगवाइए लेकिन नदियों को उनकी पवित्रता हर हाल में लौटाइए। देश की समस्त नदियां गंदी हो गई है। उन्हें गंदा हम सबने किया है तो उन्हें साफ रखने का संकल्प भी हम सबको लेना होगा। हमार ॠषि मुनियों का मंतव्य भी यही था।
√•प्रयाग, जिसे प्रयागराज या इलाहाबाद के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू पौराणिक कथाओं और प्राचीन संस्कृत साहित्य में एक अत्यंत पूजनीय स्थान रखता है। पवित्र नदियों गंगा (गंगा), यमुना और पौराणिक सरस्वती के सेगम पर स्थित, इसे अक्सर “तीर्थराज” यानी तीर्थ स्थलों का राजा कहा जाता है। प्रयाग का महत्व प्राचीन वेदों से लेकर पुराणों और महान महाकाव्यों तक कई संस्कृत ग्रंथों में प्रतिध्वनित होता है।
“प्रयागस्य पवेशाद्वै पापं नश्यतिः तत्क्षणात्।”
√• प्रयाग में प्रवेश मात्र से ही समस्त पाप कर्म का नाश हो जाता है।
√•प्रयाग को ब्रह्मवैवर्त पुराण में तीर्थराज कहा गया है
√•सभ्यता के आरंभ से ही यह ऋषियों की तपोभूमि रही है।
√•यहां सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सृष्टि कार्य पूर्ण होने के बाद प्रथम यज्ञ किया था। इस पावन नगरी के अधिष्ठाता भगवान श्री विष्णु स्वयं हैं और वे यहाँ माधव रूप में विराजमान हैं। भगवान के यहाँ बारह स्वरूप विध्यमान हैं। जिन्हें द्वादश माधव कहा जाता है।
√•प्रयाग स्थल पवित्रतम नदी गंगा और यमुना के संगम पर स्थित है। यहीं सरस्वती नदी गुप्त रूप से संगम में मिलती है, अतः ये त्रिवेणी संगम कहलाता है, जहां प्रत्येक बारह वर्ष में कुंभ का आयोजन होता है।
√•प्रयाग सोम, वरूण तथा प्रजापति की जन्मस्थली है। प्रयाग का वर्णन वैदिक तथा बौद्ध शास्त्रों के पौराणिक पात्रों के सन्दर्भ में भी रहा है। यह महान ऋषि भारद्वाज, ऋषि दुर्वासा तथा ऋषि पन्ना की ज्ञानस्थली थी। ऋषि भारद्वाज यहां लगभग 5000 ई०पू० में निवास करते हुए 10000 से अधिक शिष्यों को पढ़ाया। सागर मंथन से प्राप्त अमृत कलश से छलककर अमृत की बूंद यहां गिरी थी। इस घटना के पश्चात यहां कुंभका आयोजन होता चला आ रहा है जिसमें जप, तप, यज्ञ, हवन और सत्संग की धारा बहती है।
√•वैदिक उत्पत्ति: ऋग्वेद परिषद में प्रयाग और उससे जुड़ी तीर्थयात्रा प्रथाओं का सबसे पहला उल्लेख है। इससे पता चलता है कि वैदिक परंपरा के प्रारंभिक चरणों में भी प्रयाग की पवित्रता को मान्यता दी गई थी।
√•पुराण (पौराणिक कथाओं और ब्रह्माण्ड विज्ञान से परिपूर्ण प्राचीन हिन्दू ग्रंथ) प्रयाग के विषय में किंवदंतियों और प्रतीकात्मकता का समृद्ध ताना-बाना प्रस्तुत करते हैं।
√•मत्स्य पुराणः प्रयाग को उस स्थान के रूप में चित्रित करता है जहाँ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने महाप्रलय के बाद पहला बलिदान (यज्ञ) दिया था, जिससे यह स्थान पवित्र हो गया। यहाँ एक प्रासंगिक श्लोक है:
“प्रयागे तु महादेव यज्ञं यज्ञपतिर्यौ।
तत्रापश्यत् स्वयं ब्रह्मा तीर्थराजं जग्गुरुम् ॥”
√•अर्थात् “प्रयाग में, यज्ञों के स्वामी महेश्वर [शिव] ने एक वार यज्ञ किया था। वहाँ, ब्रह्मा ने स्वयं तीर्थों के राजा, संपूर्ण जगत के गुरु को देखा।”
√•अग्नि पुराण और अन्य पुराण प्रयाग के बारे में विस्तार से बताते हैं, इसे एक ऐसा स्थान बताते हैं जहाँ तीर्थयात्री, पुजारी और विक्रेता एकत्रित होते हैं, यह आध्यात्मिक साधकों, अनुष्ठानिक कार्यों और रोज़मर्रा की ज़िंदगी का जीवंत संगम है। त्रिवेणी संगम (तीन नदियों का संगम) पर अनुष्ठान स्रान को कई पुराणों में मुक्ति और शुद्धि के मार्ग के रूप में वर्णित किया गया है।
√•प्रतिष्ठित हिंदू महाकाव्यों, रामायण और महाभारत ने भी प्रयाग को अपनी कथाओं में शामिल किया है।
√•रामायणः रामायण में प्रयाग का उल्लेख ऋषि भारद्वाज के पौराणिक आश्रम के स्थान के रूप में किया गया है। इसी आश्रम में भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ने अपने वनवास के दौरान ऋषि का आशीर्वाद लिया था।
√•महाभारतः महाभारत में कई संदर्भों में प्रयाग के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। महाकाव्य में शुभ समय पर प्रयाग में स्नान करने से अपार आध्यात्मिक पुण्य की प्राप्ति का वर्णन है।
“तीर्थाणि पुण्यान्यकाशेऽन्तर्दिवि स्थिता ।
तानि सर्वाणि गंगायां प्रयागे च विशेषतः ॥”
√•अर्थात् “यहां तक कि वे पवित्र स्थान जो स्वर्ग में या स्वर्ग और पृथ्वी के बीच मौजूद हैं, वे गंगा में पाए जा सकते हैं, विशेष रूप से प्रयाग में।”
√•प्रयाग की शक्तिः प्रतीकवाद और महत्व संस्कृत ग्रंथों में प्रयाग का वर्णन गहन प्रतीकात्मकता को उजागर करता है:
√•पवित्र और अपवित्र का संगमः प्रयाग एक सीमांत स्थान का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ दिव्य और सांसारिक जुड़ते हैं। नदियों का संगम विभिन्न मार्गों, परंपराओं और जीवन के पहलुओं के मिलन बिंदु का प्रतीक है।
√•शुद्धिकरण और नवीनीकरणः त्रिवेणी संगम में स्त्रान का अनुष्ठान पापों के शुद्धिकरण, नकारात्मकता को धोने और आध्यात्मिक नवीनीकरण का प्रतीक है।
√•लौकिक महत्वः सरस्वती नदी की गुप्त उपस्थिति पवित्रता की एक और परत जोड़ती है, जो बुद्धि, ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती है।
√•हिंदू परंपरा की चेतना में गहराई से समाया प्रयाग आज भी एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल वना हुआ है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथ इस पवित्र स्थान का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत करते हैं, जो आस्था, अनुष्ठान और ईश्वर की खोज की शक्ति का एक कालातीत प्रमाण है।