गुजरात के जूनागढ़ में समुद्रतट पर स्थित सोमनाथ का पावन मंदिर हमलावरों ने कई बार तोड़ा; पर यह हर बार, पहले से भी अधिक गौरव के साथ फिर सिर उठाकर खड़ा हो गया। 11 मई, 1951 का प्रसंग भी ऐसा ही है। इसमें जहां एक ओर राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने धर्मप्रेम और दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया, वहीं प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने हर काम में बाधा डाली।
जूनागढ़ रियासत की प्रजा हिन्दू थी; पर शासक महावत खां (तृतीय) आजादी के बाद उसे पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। इस पर गृहमंत्री सरदार पटेल और केन्द्रीय मंत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने वहां जनविद्रोह करा दिया। अतः वह अपनी बेगमों, कुत्तों और सम्पत्ति के साथ कराची भाग गया। इस प्रकार नौ नवम्बर, 1947 को जूनागढ़ भारत में मिल गया। चार दिन बाद 13 नवम्बर को सरदार पटेल और मुंशी जी वहां गये। उन्होंने सागर का जल हाथ में लेकर ‘जय सोमनाथ’ कहा और मंदिर के पुनर्निर्माण की घोषणा कर दी।
इसके बाद काम तेजी से आगे बढ़ने लगा। सरदार पटेल के सामने तो नेहरू जी चुप रहे; पर 15 दिसम्बर, 1950 को उनके देहांत के बाद वे विरोध पर उतर आये। गांधी जी की इच्छा थी कि इसमें सरकार का पैसा न लगे। अतः मंदिर निर्माण के लिए जामसाहब नवानगर श्री दिग्विजय सिंह की अध्यक्षता में एक न्यास बना। जनता तथा धनपतियों ने दिल खोलकर दान दिया। न्यास की इच्छा थी कि ज्योतिर्लिंग की स्थापना राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के हाथों से हो। इसके लिए श्री मंुशी ने उनसे भेंट की।
डा. राजेन्द्र प्रसाद जानते थे कि नेहरू जी इसके विरोधी हैं; पर वे धर्मप्रेमी थे। अतः उन्होंने स्वीकृति दे दी। उन्होंने कहा कि चाहे इसके लिए उन्हें राष्ट्रपति का पद छोड़ना पड़े; पर वे पीछे नहीं हटेंगे। क्योंकि वे राष्ट्रपति बाद में हैं और सनातनी हिन्दू पहले। उन्होंने प्रधानमंत्री को इसकी विधिवत सूचना भी दे दी। इस पर नेहरू जी बौखला गये। उन्होंने कहा सेक्यूलर देश होने के नाते राष्ट्रपति का इसमें शामिल होना ठीक नहीं है। इसके लिए उन्होंने पूर्व गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से आग्रह किया कि वे राष्ट्रपति से कहें; पर श्री राजगोपालाचारी ने हस्तक्षेप से इन्कार कर दिया।
अब नेहरू जी के सामने कोई विकल्प नहीं था। अतः उन्होंने राष्ट्रपति से आग्रह किया कि वे इसमें व्यक्तिगत हैसियत से शामिल हों। यह डा. राजेन्द्र प्रसाद की जीत और नेहरू की हार थी। इधर न्यास के अध्यक्ष ने सभी राज्य सरकारों से आग्रह किया कि वे स्थापना समारोह में पूजा के लिए अपने राज्य की पवित्र नदियों का जल, मिट्टी और कुशा घास भेजें। यह वैश्विक एकता का प्रतीक बने, इसके लिए यही आग्रह उन्होंने विदेशस्थ भारतीय राजदूतों से भी किया।
इस पर नेहरू जी फिर भड़क गये। चीन में स्थित राजदूत सरदार के.एम.पणिक्कर चीन समर्थक और नेहरू के भक्त थे। उन्होंने सरकार से पूछा कि यह क्या हो रहा है तथा इसका खर्चा किस मद में डाला जाएगा; चीन की सरकार हमारे बारे में क्या सोचेगी ? यद्यपि अधिकांश देशों ने सौजन्यपूर्वक यह सामग्री भेजी तथा इसका समाचार भी प्रकाशित किया। उस दौरान होने वाली मंत्रिमंडल की बैठकों में नेहरू जी प्रायः के.एम. मुुुंशी पर बरसते रहते थे।
एक बार नेहरू जी ने न्यास के अध्यक्ष और श्री मुंशी को धमकी भरा पत्र लिखा। मुंशी जी ने भी उसका मुंहतोड़ उत्तर दिया। न्यास के अध्यक्ष ने विचलित हुए बिना उन्हें भी समारोह में आने का निमंत्रण भेज दिया। नेहरू जी ने इसे पुनरुत्थानवादी कहकर ठुकरा दिया। इन परिस्थितियों में 11 मई, 1951 को राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने भव्य ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। ‘जय सोमनाथ’ का संकल्प पूरा हुआ और जवाहर लाल नेहरू हाथ मलते रहे गये।